Sunday, September 27, 2009

नवमी भी गुज़र गयी....!!

दशमी का दिन आ गया...नवमी को अब भूल जाओ !! जी हाँ ,कुछ ऐसा ही सोचकर श्रीनगर के ग्रामीण आज की आधी रात गुजारकर सवेरा होने का इंतज़ार कर रहे होंगे। बीता दिन महानवमी था। महानवमी,यानी एक ऐसा दिन;जिसमें 2009 में होते हुए भी श्रीनगर के 99.09 प्रतिशत लोगों को 1909 इस्वी के किसी घोर सामंती दिन जैसा दिखलाई देता है। इसे सौभाग्य कहिये या दुर्भाग्य,पर श्रीनगर में ऐसा ही है।

श्रीनगर में राजा श्रीनन्द सिंह द्वारा स्थापित कुछेक स्थलों में से एक देविघरा को (देवी दुर्गा का घर), आसपास के इलाके में अपनी सिद्धि को लेकर महारथ हासिल है।यूँ तो दसियों हज़ार लोगों की आस्था से यह सीधा जुडा है ,लेकिन इसमें होने वाली पूजा-प्रबंधन की जिम्मेदारी को श्रीनगर ड्योढी के लोग ही संभालते हैं। दशहरे में यहाँ पर लगने वाले मेले में आने वाले सैकड़ों टोलों-बस्तियों के महिला -पुरूष -बच्चों के द्वारा लगने वाली भीड़ के प्रबंधन की भी जिम्मेदारी भी हम ही संभालते हैं । पूजा को समय से कुशल नियम-धर्म-रीति-विधिविधानपूर्वक निपटाना, मन्दिर सौन्दर्यीकरण, मेला में घूमने आए लोगों के मनोरंजन के लिए नाच-गान का इंतज़ाम,मेला-दुकानदारों के आपसी विवादों का निपटारा, लड़कियों-महिलाओं के साथ छेड़खानी करने वालों पर ध्यान रखना...जैसे ना जाने कितने ही मसलों में डूबे रहते हैं ड्योढी के लोग।

लेकिन सबसे मुश्किल भरी जिम्मेदारी होती है महानवमी को होने वाले ''बलिदान'' के दिन को सम्हालने में। इस दिन सुबह से ही आसपास के चालीस-पचास किलोमीटर के गावों से लोग अपने साथ बकरे लाते हैं....लोग अपने बकरों को लेकर कतार में लगते हैं। महानवमी पूजा खत्म होने के बाद सर्वप्रथम ड्योढी के बकरों(सरकारी बकरों) की बलि होती है,फ़िर बलिप्रदानकर्ता(वर्तमान में जीबछ ठाकुर) अपनी खूनी आवाज़ में ''माँ'' को पुकारता है। मान्यता के मुताबिक इसके बाद उसके दुर्बल शरीर में भी तरंगीय गतिविधि होने लगती है, फ़िर ड्योढी के लोगों के विचारविमर्श के बाद संदेश जारी किया जाता है कि अब पब्लिक वर्ग के बकरों कि बलि शुरू की जा सकती है । इस मौके पर ड्योढी के लोग अपने कर्मठ कार्यकर्ताओं के साथ, इस खूनी कृत्य के स्मूथली चलने की कवायद करते नज़र आते हैं। इस अवसर पर ड्योढी के सदस्यों की कितने ही लोगों से कहा-सुनी भी होती है(असल में कई लोग नियम को तोड़कर अपने बकरे का नंबर पहले करवाना चाहते है। मान्यता के अनुसार बलि दी हुई बकरे का कटा सर वहीं माता के पास छोड़ने का चलन है ।

फ़िर शुरू होती है कटे हुए सिरों के बंटन की प्रक्रिया। यहाँ का चलन है कि सर्वप्रथम बलिप्रदानकर्ता अपना हिस्सा लेता है ,जो कि उसके द्वारा पहले से हुए करार में निर्धारित होता है,फ़िर ड्योढी के सभी परिवारों में इन सिरों
को चार-पाँच की संख्या में बाँट दिया जाता है । अब नंबर आता है पूजा में लगे सभी कार्यकर्ताओं का (पंडित, पुरोहितगण, मूर्तिकार ब्रदर्स , सजावटकर्तागण , सफाई कर्मचारीगण , फूल तोडनेवाला,माली, ढोल-पिपही-शहनाई बजाने वाली टोली ,भोग-सामग्री बनाने वाली महिलाओं इत्यादि का)। इनमें से अधिकतर लोगों की मांग रहती है कि उन्हें सिरा ना सिर्फ़ उनके हिस्से से बढ़कर मिले,बल्कि उनके विशेष अनुरोध पर उन्हें चार-पाँच सिरा दिया जाय। इसके लिए वो रूपये देने के लिए भी तैयार रहते हैं । इन सब के बाद अब समाज की बारी आती है। पूजा को कुशलपूर्वक संपन्न कराने में कई लोगों की आवश्यकता होती है,जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसमें शामिल होते है। फ़िर उनका नंबर भी है जिनके बाप-दादों ने पिछले समय में पूजा-प्रबंधन के दौरान ड्योढी की काफी मदद की थी,उनके प्रताप से उनके संतानों को भी सिरा प्राप्य है ।फ़िर लोकतंत्र के तहत चुने गए जन-प्रतिनिधियों का नंबर आता है। सरकारी तंत्र भला ऐसे में अछूता कैसे रह सकता है, किसी डिपार्टमेंट में यह महाप्रसाद जाय,या नही जाय.....थाना तो जरूर भेजा जाता है!आख़िर थाने के ये सब-इंसपेक्टर एवं उनकी पूरानी राइफलधारी पलटन पूरे तीन दिनों तक दिनरात मेले का चक्कर लगाती रहती है। इन सब जगहों पर सभी हृष्ट-पुष्ट सिरों को भेजा जाता है। इसके बाद बचे हुए सिरों को सिंगल विंडो प्रक्रिया से बांटा जाता है। लोगों की इन सिरों में इतनी मज़बूत आस्था है कि वे इसके लिए निर्धारित 50 रुपयों की जगह 300-400/ रुपये भी देने को तैयार रहते हैं। आप ख़ुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि ऐसी परिस्थिति में ज़रा सी असावधानी होने पर इस महाप्रसाद समझी जाने वाली वस्तु के कालाबाजारी का खतरा कितना ज्यादा है। एक तो बिना पूर्व सूचना के इसका बंटन किया जाता है, दूसरा एक व्यक्ति को एक ही सिरा दिया जाता है, तीसरा; उस समय गाँव के कुछ लोगों की मदद से इस बात पर ध्यान रखवाया जाता है कि जहाँ तक संभव हो सके, किसी एक परिवार में एक से ज्यादा सिरा ना जाय ।

सांझ ढलते-ढलते महानवमी का रंग और भी ज्यादा गाढा हो जाता है। लोग नए एवं रंग-बिरंगे कपडों में अपने परिवारों के साथ मन्दिर-मेले के दर्शन आ रहे होते हैं। भीड़ इतनी बढ़ चुकी होती है कि इनके वाहनों (बैलगाड़ी,ट्रैक्टर,जीप,मोटरसाइकिलों) को आधा किमी० दूर ही पार्क करना पड़ता है। मेले के अन्दर का माहौल बड़ा मोहक होता है। मिठाई की दुकानों में जिलेबियां सर्वाधिक बनती हैं । कोशी के इलाके में मेले का अलग ही महत्व है,और उस मेले में जिलेबियों का भी मजेदार इतिहास है। उस इतिहास की बात कभी और ,पर ध्यान रहे कि जिलेबी सिर्फ़ पूजा में चढाने के लिए ही नही ख़रीदी जाती है ,बल्कि गरीब और कम आमदनी वाले लोग इसे मुढी(मुरही/फरही) के साथ मिलाकर फांकते हुए अपना भूख भी शांत करते हैं । मेले में जलेबियाँ तो खरीद ली,लेकिन क्या पूजा करना इतना आसान है? जी नही , आसान बिल्कुल नहीं है। पिछले 7-8 सालों से इससे मन्दिर के प्रबंधकों का पुनर्जागरण हुआ है । अब यह जनता-वर्ग के लोगों की भीड़ एक साथ मन्दिर में प्रवेश नही करने देते। मन्दिर के अन्दर ड्योढी के सदस्य एवं कार्यकर्ताओं की टीम मौजूद होती है। हजारों भक्तों को एक-एक करके मन्दिर में प्रवेश करवाना....कम से कम समय में उनकी पूजा को पंडित से निपट्वाना, फ़िर उन्हें निकास द्वार दिखलाना और यह सुनिश्चित करना कि वे निकासी-द्वार से ही निकलें(अधिकतर भक्त जिस रास्ते से आए हैं,उसी रास्ते से वापस बाहर निकलना चाहते हैं)!! ऐसे में कई लोग आते है जो आपसे अपनी मित्रता की दुहाई देकर,पुरानी पहचान की दुहाई देकर अपना एवं अपने परिवार का काम निकालना चाहते हैं,ऐसे लोगों को मन्दिर में दर्शन के लिए भी थोड़ी देर खड़े होना ,अपने नंबर का इंतज़ार करना गवारा नही होता । अक्सर ऐसे लोगों से झड़प कि स्थिति बन जाती है। मेरी तो ऐसे मौके पर कईयों से झड़प हुई है । एक और बड़ी समस्या ,लोग मूर्ति को हाथ से छूकर प्रणाम करना चाहते हैं....मूर्ति मिट्टी की बनी होती है ,सीधे भौतिक तौर पर देखें तो ऐसे में टूटने का खतरा रहता है (मूर्ति के अंग-भंग को शास्त्र में अशुभ द्योतक माना गया है)और मान्यता के मुताबिक मूर्ति की पवित्रता इससे भंग होने का खतरा रहता है । कई लोग मूर्ति को छूने ना देने पर जिरह करने लगते हैं...और बिदककर मन्दिर से बिना पूजा किए ही वापस लौट जाते हैं।

ये तो रही मन्दिर की बात, उधर मेला भी झंझटों का अखाड़ा होता है। लाख सतर्कता के बावजूद मेले में मादक पदार्थों की बिक्री होती ही है । देसी दारु, अंग्रेजी शराब, गांजा....इन तीन चीज़ों की धूम रहती है। इलाके के सभी पियक्कड़ यहाँ शराब पीकर मेले का नज़ारा देखने पहुँच रहे होते हैं। फ़िर मेले में शौकिया तौर पर पीने वालों का तो हरेक मेला स्वागत करता है । गांजा पीने वाले लोग माकूल जगह ढूंढ रहे होते हैं।आख़िर इनके अन्दर का अल्कोहल और टेट्रा-हाइड्रो-कैनिबाल कुछ न कुछ तो गुल खिलायेगा ही!!
दूसरी तरफ़ नाच-गान कार्यक्रम भी होता है ,जहाँ देर रात में लोग लोक-कला का आनंद ले रहे होते हैं। यहाँ पर भी शान्ति-व्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी बड़ी मुश्किल होती है। हुड़दंगी बच्चे यहाँ अंधेरों में साँप-साँप चिल्लाकर सैकडों लोगों को एक कोने से दूसरे कोने में दौडाने जैसी शरारतें करते हैं ।

3 comments:

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  2. चिन्मय जी, ये देख ख़ुशी हुई की आप अपने पुर्णिया क्षेत्र से रिपोर्टिंग कर रहे हैं.
    उज्जवल भविष्य की शुभकामनायें!

    - सुलभ (ArariaToday.com | यादों का इंद्रजाल..)

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