Tuesday, October 20, 2009

तस्वीरों के सहारे यादों को ताज़ा कीजिये!!!


DEVIGHARA, इस बार देविघरा का रूप और रंग एकदम से बदला हुआ था । श्रीनगर का देविघरा इससे पहले इतना ज्यादा रंगीन और सम्यक मैंने पहले कभी नहीं देखा।


STATUE OF DURGA JEE, दुर्गाजी की प्रतिमा....मूर्तिकारों को अभी और मेहनत करने की जरूरत है। लेकिन फ़िर भी तारीफ़ के काबिल !!
VISARJANA, विसर्जन के बाद मूर्ति को अब जल में प्रवाहित किया जायगा;इनके आभूषणों को उतार कर अगले साल के लिए रखना भी एक जिम्मेदारी भरा कार्य है!


BALI-PRADAAN, महानवमी का महाकार्य ; बलिप्रदानकर्ता जीबछ ठाकुर को मालूम नहीं कि अब तक कितने बकरों की बलि हो चुकी है! पूछने पर कहते हैं --जय माँ काली..जय माँ दुर्गे !!


ON PUJA DUTY...देवानंद सिंह,संजीवानंद सिंह,विभूति ,साथ में अनिल विश्वास(खोखा)। मन्दिर में इनका मौजूद होना यहाँ की व्यवस्था को सुचारू बनाए रखने के लिए काफी जरूरी है । बारी -बारी से ड्योढी के सभी लोग आकर इस कार्य में अपना योगदान देते हैं । ग्रामीणों की ओर से भी कोई ना कोई उनका प्रतिनिधित्व करने को होता है(खोखा से अनिल यहाँ पर खोखा वासियों के प्रतिनिधि के रूप में हैं)!!

BHUTTO,जुल्फिकार अली भुट्टो ; नहीं....बल्कि भुट्टो साह। चाहे भगवती को नाना प्रकार के मिष्टान्न के भोग लगाने हैं या फ़िर आज काला जामुन /गरम -गरम गुलाब जामुन खाने की इच्छा है,आपकी पहली पसंद पर इसी व्यक्ति का अधिपत्य है । आख़िर श्रीनगर ड्योढी का खानदानी हलवाई रहा है इसका पूरा परिवार ।

ZALEBEE, इसके बारे में लिख कर बतलाने से इस स्वनामधन्य वस्तु की तौहीन होगी । हाँ ,मेले में लाल-हरे -पीले परिधानों में गांवों से आयी महिलाओं की साडी की खूंट में ज़लेबी से भरी पन्नी(पोलीबैग )जब बंधी होती है तो इन दोनों के रंग में फर्क करना बिल्कुल असंभव होता है । "ज़लेबी की लोकप्रियता के पीछे कारण" विषय पर किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि आम जनमानस में ज़लेबी अपने स्वाद को लेकर तो पसंद की ही जाती है लेकिन उससे भी ज्यादा यह अपने ठेठ सिंदूरी / केसरिया लाल रंग के लिए मशहूर है ।
आपको मालूम है ही कि हरेक दशहरे में राजा श्रीनन्द सिंह की स्मृति में एक क्रिकेट टूर्नामेंट का आयोजन किया जाता है । नीचे तस्वीरें प्रस्तुत हैं ।



















Sunday, September 27, 2009

नवमी भी गुज़र गयी....!!

दशमी का दिन आ गया...नवमी को अब भूल जाओ !! जी हाँ ,कुछ ऐसा ही सोचकर श्रीनगर के ग्रामीण आज की आधी रात गुजारकर सवेरा होने का इंतज़ार कर रहे होंगे। बीता दिन महानवमी था। महानवमी,यानी एक ऐसा दिन;जिसमें 2009 में होते हुए भी श्रीनगर के 99.09 प्रतिशत लोगों को 1909 इस्वी के किसी घोर सामंती दिन जैसा दिखलाई देता है। इसे सौभाग्य कहिये या दुर्भाग्य,पर श्रीनगर में ऐसा ही है।

श्रीनगर में राजा श्रीनन्द सिंह द्वारा स्थापित कुछेक स्थलों में से एक देविघरा को (देवी दुर्गा का घर), आसपास के इलाके में अपनी सिद्धि को लेकर महारथ हासिल है।यूँ तो दसियों हज़ार लोगों की आस्था से यह सीधा जुडा है ,लेकिन इसमें होने वाली पूजा-प्रबंधन की जिम्मेदारी को श्रीनगर ड्योढी के लोग ही संभालते हैं। दशहरे में यहाँ पर लगने वाले मेले में आने वाले सैकड़ों टोलों-बस्तियों के महिला -पुरूष -बच्चों के द्वारा लगने वाली भीड़ के प्रबंधन की भी जिम्मेदारी भी हम ही संभालते हैं । पूजा को समय से कुशल नियम-धर्म-रीति-विधिविधानपूर्वक निपटाना, मन्दिर सौन्दर्यीकरण, मेला में घूमने आए लोगों के मनोरंजन के लिए नाच-गान का इंतज़ाम,मेला-दुकानदारों के आपसी विवादों का निपटारा, लड़कियों-महिलाओं के साथ छेड़खानी करने वालों पर ध्यान रखना...जैसे ना जाने कितने ही मसलों में डूबे रहते हैं ड्योढी के लोग।

लेकिन सबसे मुश्किल भरी जिम्मेदारी होती है महानवमी को होने वाले ''बलिदान'' के दिन को सम्हालने में। इस दिन सुबह से ही आसपास के चालीस-पचास किलोमीटर के गावों से लोग अपने साथ बकरे लाते हैं....लोग अपने बकरों को लेकर कतार में लगते हैं। महानवमी पूजा खत्म होने के बाद सर्वप्रथम ड्योढी के बकरों(सरकारी बकरों) की बलि होती है,फ़िर बलिप्रदानकर्ता(वर्तमान में जीबछ ठाकुर) अपनी खूनी आवाज़ में ''माँ'' को पुकारता है। मान्यता के मुताबिक इसके बाद उसके दुर्बल शरीर में भी तरंगीय गतिविधि होने लगती है, फ़िर ड्योढी के लोगों के विचारविमर्श के बाद संदेश जारी किया जाता है कि अब पब्लिक वर्ग के बकरों कि बलि शुरू की जा सकती है । इस मौके पर ड्योढी के लोग अपने कर्मठ कार्यकर्ताओं के साथ, इस खूनी कृत्य के स्मूथली चलने की कवायद करते नज़र आते हैं। इस अवसर पर ड्योढी के सदस्यों की कितने ही लोगों से कहा-सुनी भी होती है(असल में कई लोग नियम को तोड़कर अपने बकरे का नंबर पहले करवाना चाहते है। मान्यता के अनुसार बलि दी हुई बकरे का कटा सर वहीं माता के पास छोड़ने का चलन है ।

फ़िर शुरू होती है कटे हुए सिरों के बंटन की प्रक्रिया। यहाँ का चलन है कि सर्वप्रथम बलिप्रदानकर्ता अपना हिस्सा लेता है ,जो कि उसके द्वारा पहले से हुए करार में निर्धारित होता है,फ़िर ड्योढी के सभी परिवारों में इन सिरों
को चार-पाँच की संख्या में बाँट दिया जाता है । अब नंबर आता है पूजा में लगे सभी कार्यकर्ताओं का (पंडित, पुरोहितगण, मूर्तिकार ब्रदर्स , सजावटकर्तागण , सफाई कर्मचारीगण , फूल तोडनेवाला,माली, ढोल-पिपही-शहनाई बजाने वाली टोली ,भोग-सामग्री बनाने वाली महिलाओं इत्यादि का)। इनमें से अधिकतर लोगों की मांग रहती है कि उन्हें सिरा ना सिर्फ़ उनके हिस्से से बढ़कर मिले,बल्कि उनके विशेष अनुरोध पर उन्हें चार-पाँच सिरा दिया जाय। इसके लिए वो रूपये देने के लिए भी तैयार रहते हैं । इन सब के बाद अब समाज की बारी आती है। पूजा को कुशलपूर्वक संपन्न कराने में कई लोगों की आवश्यकता होती है,जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसमें शामिल होते है। फ़िर उनका नंबर भी है जिनके बाप-दादों ने पिछले समय में पूजा-प्रबंधन के दौरान ड्योढी की काफी मदद की थी,उनके प्रताप से उनके संतानों को भी सिरा प्राप्य है ।फ़िर लोकतंत्र के तहत चुने गए जन-प्रतिनिधियों का नंबर आता है। सरकारी तंत्र भला ऐसे में अछूता कैसे रह सकता है, किसी डिपार्टमेंट में यह महाप्रसाद जाय,या नही जाय.....थाना तो जरूर भेजा जाता है!आख़िर थाने के ये सब-इंसपेक्टर एवं उनकी पूरानी राइफलधारी पलटन पूरे तीन दिनों तक दिनरात मेले का चक्कर लगाती रहती है। इन सब जगहों पर सभी हृष्ट-पुष्ट सिरों को भेजा जाता है। इसके बाद बचे हुए सिरों को सिंगल विंडो प्रक्रिया से बांटा जाता है। लोगों की इन सिरों में इतनी मज़बूत आस्था है कि वे इसके लिए निर्धारित 50 रुपयों की जगह 300-400/ रुपये भी देने को तैयार रहते हैं। आप ख़ुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि ऐसी परिस्थिति में ज़रा सी असावधानी होने पर इस महाप्रसाद समझी जाने वाली वस्तु के कालाबाजारी का खतरा कितना ज्यादा है। एक तो बिना पूर्व सूचना के इसका बंटन किया जाता है, दूसरा एक व्यक्ति को एक ही सिरा दिया जाता है, तीसरा; उस समय गाँव के कुछ लोगों की मदद से इस बात पर ध्यान रखवाया जाता है कि जहाँ तक संभव हो सके, किसी एक परिवार में एक से ज्यादा सिरा ना जाय ।

सांझ ढलते-ढलते महानवमी का रंग और भी ज्यादा गाढा हो जाता है। लोग नए एवं रंग-बिरंगे कपडों में अपने परिवारों के साथ मन्दिर-मेले के दर्शन आ रहे होते हैं। भीड़ इतनी बढ़ चुकी होती है कि इनके वाहनों (बैलगाड़ी,ट्रैक्टर,जीप,मोटरसाइकिलों) को आधा किमी० दूर ही पार्क करना पड़ता है। मेले के अन्दर का माहौल बड़ा मोहक होता है। मिठाई की दुकानों में जिलेबियां सर्वाधिक बनती हैं । कोशी के इलाके में मेले का अलग ही महत्व है,और उस मेले में जिलेबियों का भी मजेदार इतिहास है। उस इतिहास की बात कभी और ,पर ध्यान रहे कि जिलेबी सिर्फ़ पूजा में चढाने के लिए ही नही ख़रीदी जाती है ,बल्कि गरीब और कम आमदनी वाले लोग इसे मुढी(मुरही/फरही) के साथ मिलाकर फांकते हुए अपना भूख भी शांत करते हैं । मेले में जलेबियाँ तो खरीद ली,लेकिन क्या पूजा करना इतना आसान है? जी नही , आसान बिल्कुल नहीं है। पिछले 7-8 सालों से इससे मन्दिर के प्रबंधकों का पुनर्जागरण हुआ है । अब यह जनता-वर्ग के लोगों की भीड़ एक साथ मन्दिर में प्रवेश नही करने देते। मन्दिर के अन्दर ड्योढी के सदस्य एवं कार्यकर्ताओं की टीम मौजूद होती है। हजारों भक्तों को एक-एक करके मन्दिर में प्रवेश करवाना....कम से कम समय में उनकी पूजा को पंडित से निपट्वाना, फ़िर उन्हें निकास द्वार दिखलाना और यह सुनिश्चित करना कि वे निकासी-द्वार से ही निकलें(अधिकतर भक्त जिस रास्ते से आए हैं,उसी रास्ते से वापस बाहर निकलना चाहते हैं)!! ऐसे में कई लोग आते है जो आपसे अपनी मित्रता की दुहाई देकर,पुरानी पहचान की दुहाई देकर अपना एवं अपने परिवार का काम निकालना चाहते हैं,ऐसे लोगों को मन्दिर में दर्शन के लिए भी थोड़ी देर खड़े होना ,अपने नंबर का इंतज़ार करना गवारा नही होता । अक्सर ऐसे लोगों से झड़प कि स्थिति बन जाती है। मेरी तो ऐसे मौके पर कईयों से झड़प हुई है । एक और बड़ी समस्या ,लोग मूर्ति को हाथ से छूकर प्रणाम करना चाहते हैं....मूर्ति मिट्टी की बनी होती है ,सीधे भौतिक तौर पर देखें तो ऐसे में टूटने का खतरा रहता है (मूर्ति के अंग-भंग को शास्त्र में अशुभ द्योतक माना गया है)और मान्यता के मुताबिक मूर्ति की पवित्रता इससे भंग होने का खतरा रहता है । कई लोग मूर्ति को छूने ना देने पर जिरह करने लगते हैं...और बिदककर मन्दिर से बिना पूजा किए ही वापस लौट जाते हैं।

ये तो रही मन्दिर की बात, उधर मेला भी झंझटों का अखाड़ा होता है। लाख सतर्कता के बावजूद मेले में मादक पदार्थों की बिक्री होती ही है । देसी दारु, अंग्रेजी शराब, गांजा....इन तीन चीज़ों की धूम रहती है। इलाके के सभी पियक्कड़ यहाँ शराब पीकर मेले का नज़ारा देखने पहुँच रहे होते हैं। फ़िर मेले में शौकिया तौर पर पीने वालों का तो हरेक मेला स्वागत करता है । गांजा पीने वाले लोग माकूल जगह ढूंढ रहे होते हैं।आख़िर इनके अन्दर का अल्कोहल और टेट्रा-हाइड्रो-कैनिबाल कुछ न कुछ तो गुल खिलायेगा ही!!
दूसरी तरफ़ नाच-गान कार्यक्रम भी होता है ,जहाँ देर रात में लोग लोक-कला का आनंद ले रहे होते हैं। यहाँ पर भी शान्ति-व्यवस्था कायम रखने की जिम्मेदारी बड़ी मुश्किल होती है। हुड़दंगी बच्चे यहाँ अंधेरों में साँप-साँप चिल्लाकर सैकडों लोगों को एक कोने से दूसरे कोने में दौडाने जैसी शरारतें करते हैं ।

Saturday, September 26, 2009

श्रीनगर फाइनल में हारा...प्रखंड मुख्यालय में मायूसी का आलम !!

आज दोपहर बाद समाचार मिला कि फाइनल में पहुँचने की खुशी का दौर ख़त्म हो चुका है। जी हाँ ,श्रीनन्द कप के फाइनल मैच में खोखा ने श्रीनगर को हरा दिया। यह समाचार इतना दुखद था कि हमारे टीम के खिलाड़ी अपना-2 मोबाइल फोन बंद करके चुपचाप घरों में बैठे थे (भारत-पाकिस्तान का मैच देख रहे होंगे असल में)। खैर ,खेल आखिर खेल है,इसमें हार -जीत तो होती ही है....इसी वाक्य का इस्तेमाल कर के श्रीनगर के प्रशंसकों ने अपने ग़मों पर काबू पाया !



शनिवार का दिन श्रीनगर के लिए ''हटिया''(हाट) का दिन होता है। आसपास के गांवों के लोग मंगल और शनि,दोनों दिन बिना नागा किये हटिया आते हैं। यहाँ आलू-बैगन से लेकर नयी साइकिल तक ख़रीदी जा सकती है। पर आज श्रीनगर गाँव के लोग मायूसी में अपने-अपने घरों से कम निकले। कोई श्रीनगर टीम के खिलाड़ियों को बेवकूफ और जाहिल बता रहा था..तो कोई अपनी भडास निकालने के लिए चिरपरिचित सीमान्चली अंदाज़ में टीम का हिस्सा रहे खिलाड़ियों को सुना-सुना कर गालियाँ दे रहा था। हार इतनी शर्मनाक थी कि लोग अपनी भावनाओं को काबू में नहीं कर पा रहे थे।



वहीं खोखा टीम के खिलाड़ियों के हौसले बुलंद थे। आपको याद दिला दें कि पिछले बार दशहरे में हुए इसी टूर्नामेंट में खोखा टीम को उसके रवैये और जगैली टीम के खिलाड़ियों के साथ अभद्र व्यवहार के कारण काफी फटकार लगी थी । इस बार मिले शानदार जीत के बाद पिछले ग़मों को खोखा भूलने की कवायद करता नज़र आया। खोखा ने अपने प्रदर्शन से सिद्ध कर दिया है कि भविष्य में अगर पूरे प्रखंड को मिलाकर एक टीम बनाई जाय ,तो खोखा की टीम के स्टार खिलाड़ियों की जगह अविवादित होगी। खोखा टीम के कप्तान चन्दन झा ने इसे एक तरह से श्रीनगर के लिए जीत बताया,और कहा कि भले ही श्रीनगर और खोखा दो अलग-अलग टीमों के नाम हैं,लेकिन खोखा को तो श्रीनगर के नाम से ही दूर के लोग जानते हैं!!


शाम 6 बजे के करीब का वक़्त,मैं नोएडा के सेक्टर 10 में बैठकर अपने खबरियों के साथ फोन पर बात कर ही रहा था कि हटिया में मौजूद हमारे संवाददाता ने मुझे मोबाइल पर फोन कर के बतलाया कि खोखा के सभी नवयुवक अपने-अपने मोटरसाइकिलों पर तीन-तीन लोग (एक-एक बाइक पर तीन-तीन लोग) सवार होकर हटिया पहुंचे हैं और पान की दुकान पर खड़े होकर अपने जीत की दास्तान आसपास के गांववालों को बतला रहे हैं । मैंने अपने संवादवाहक को कहा कि --''उनके नज़दीक जाकर उनमें से किसी एक को अपना फोन पकडा दो ,और बतलाओ कि मैं बात करना चाहता हूँ''। फिर मैंने भी फोन करके उन्हें बधाई दिया और दफ्तर के कामों में लग गया ।

Thursday, September 24, 2009

दशहरा के रंग में सराबोर हुआ श्रीनगर ...श्रीनन्द कप क्रिकेट में आज का दिन श्रीनगर और खोखा के नाम

श्रीनगर 24/09/2009

(श्रीनगर संवाददाता)
प्राप्त समाचार के अनुसार श्रीनगर ड्योढी में लोगों का जमघट लगना शुरू हो गया है !हम सब लोग जानते हैं की इस बार पूजा-प्रबंधन की जिम्मेदारी राजा काकाजी एवं काकी (श्री शक्त्यानंद सिंह तथा श्रीमती शक्तिरमा)की है . दशहरा हम सब के लिए एक ऐसा समय होता है, जिसमें अगर हमारे पास छुट्टी हो ;तो हम श्रीनगर जाने को ही प्राथमिकता देते हैं !
यूँ तो पूजा की तैय्यारियां 2-3 माह पहले से ही शुरू हो जाती है ,लेकिन आज का दिन (छठा दिन) का अलग ही महत्व है आज से नौकरी- पेशा वर्ग के लोग भी आने शुरू हो गए हैं .आज आने वालों में गिरधर,अनीमनी-गंगेशजी ,शिवालकर प्रमुख हैं। गिरधर के बारे में बता दें की सीमांचल का सत्तर प्रतिशत इलाका घूमने के बाद हजरत आज श्रीनगर पहुंचे हैं .कोशी में आयी भीषण बाढ़ के बाद इस बार गिरधर ने उस इलाके का दौरा किया और अपने गाँव --श्रीपुर जाकर वहाँ अपने खेत-खलिहानों का जायजा लिया।पटना से श्रीपुर जाने का मतलबहै...खगडिया,सहरसा होते हुए सुपौल जाना.और वहाँ से श्रीनगर आने के लिए,फारबिसगंज के रास्ते अररिया जिला मुख्यालय होते हुए पूर्णिया आना;यानी पिछले साल आये भयानक त्रासदी वाले समूचे इलाके का भ्रमण !

इधर नवरत्न अपने वर्तमान मालिकों के आगमन पर प्रफुल्लित है...हो भी क्यों ,बिकास जी का पूरा परिवार,प्रकाश जी का परिवार ,मनोरमा जी,सब लोग नवरत्न में अपना डेरा बसा चुके हैं श्रीनिवास में कल यानी पांचवी पूजा को रानीदाईजी-ओझाजी का आगमन हुआ है 'ओय खंड' से भी अभिषेक-अमितेश,शोभन जी के परिवार के आगमन कीख़बर है .पूजा प्रबंधक के घर में भी बुल्लू दाई,ओझाजी ,विभूति जी का पूरा परिवार चुका है। अजीत (अमृतानंद सिंह ) अब तक नही आये हैं

इधर मूर्ति को अन्तिम रूप देने का कार्य भी हो गया है सबसे महत्वपूर्ण तो यह कि बेलनौती भी शुभ-शुभ संपन्न हो गया, नरत्तन(नवरत्न)के पिछवाडे में स्थित बेल के पेड़ को इस बार चुना गया है . मेला तो अभी नही लगा हैलेकिन मिठाई की दो दुकानें खुल गयी हैं भुट्टो साह की दूकान वहीं पर इस बार भी है ,जहाँ हर साल लगा करती है
.

From our sports desk
:

साथ ही श्रीनन्द कप क्रिकेट टूर्नामेंट भी आज से शुरू हो गया आपको याद दिला दें कि पिछले साल से शुरू किएगए इस टूर्नामेंट को हर साल दशहरे में करवाने का जिम्मा गोपाल जी (रवीन्द्रनाथ ठाकुर) ने संभाल रखा है इसबार इसमें चार टीमों (श्रीनगर,जगैली,फरियानी एवं खोखा) को रखा गया है आज हुए दो मैचों में एक तरफ जहाँ खोखा के हाथों फरियानी को करारी शिकस्त मिली ,वहीं एक रोचक मुकाबले में श्रीनगर ने जगैली को 92 रनों से हरा दिया श्रीनगर ने पहले बल्लेबाजी करते हुए निर्धारित पूरे 21 ओवर खेलकर, और अन्तिम गेंद पर अपनाअपना अन्तिम विकेट गंवाते हुए जगैली के सामने 150 रनों का लक्क्ष्य रखा श्रीनगर की ओर से संजय का प्रदर्शन सबसे शानदार रहा ,संजय ने 56 रनों की सूझबूझ भरी बल्लेबाजी तो की ही ......गेंदबाजी में भी अपना जौहर दिखाया और विरोधियों के तीन विकेट्स झटकने में कामयाब रहा टिक्कू ने भी अच्छी बल्लेबाजी का परिचयदिया और महत्वपूर्ण 14 रनों का योगदान दिया जवाब में जगैली कि पूरी टीम 11 ओवरों में महज 58 रनों पर सिमट गयी, जगैली की ओर से सरवर ने सर्वाधिक विकेट लिए.
इसके अलावे हुए एक और मुकाबले में खोखा ने फरियानी को धूल चटा दिया फरियानी के सभी सूरमा 8 ओवेरोंमें मात्र 32 रन बनाकर ढेर हो गए जवाब में खोखा के बल्लेबाजों ने मात्र 3 ओवेरों में खेल का काम तमाम कर दिया

Saturday, September 19, 2009

श्रीनिगाह



गोलमंड़प -(गोलाकार मंडप)

नरत्तन (नवरत्न) के बाहरी मुखभाग की एक झलक



नरत्तन(नवरत्न)के बाहरी मुखभाग की एक और झलक



नरत्तन(नवरत्न): दूर से एक निगाह



पेड़ों की झुरमुटों के बीच से......








ऊपर जो महलनुमा घर आप देख रहे हैं उसे श्रीनगर के दो कुमारों,क्रमशः साहित्य-सरोज राजा कमलानंद सिंह एवं कुमार कालिकानंद सिंह ने सन 1895-1903 के आसपास ....और तत्कालीन ढर्रे के अनुरूप इसका नाम रखा--नवरत्न ! 1930 के दशक में इस घर ने दो बड़ी आपदाओं को सहा,एक तो पूरे सूबे में भयंकर भूकंप की मार पडी थी (इसमें नवरत्न का पिछ्ला हिस्सा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया);दूसरी अगलगी, जो इस अहाते की लक्ष्मी को तार-तार कर गयी (आयुध निर्माण कारखाना और उसमें पड़े बारूद के ढेर की वजह से भवन का पूरा पिछला भाग आग का भाजन बन गया)!!



1850 के दशक में श्रीनन्द सिंह नाम का एक जमींदार-कुमार अपने सगे सम्बन्धियों के साथ एक ऐसे जगह पर आया,जहाँ साधुजनों का निवास हुआ करता था ! आज उस स्थल पर एक महलनुमा घर पूरब की ओर ताकता खड़ा है , उस घर के पायों पर रानी विक्टोरिया की मूर्तियाँ गढी हैं;मानो ये मूर्तियाँ अपनी वैश्विक खूबसूरती का प्रदर्शन कर रही हो ! भवन के मुख्य द्वार पर दोनों तरफ़ एक-एक ईसामसीह की मूर्ति,और वहीं द्वार की हृदयस्थली पर हिन्दुओं के आराध्य गणेश भी अपनी चिरपरिचित मुद्रा में विशाल उदर के साथ! मानो श्रीनगर के 'कुमारों' को आज के इस वैश्विक पटल पर फैले वैश्वीकरण की गंध 100-150 साल पहले ही लग गयी थी ! 52 बीघे में फैले इस अहाते का अपना अलग सामंती संविधान था. बिहार में सामंतवाद के बारे में लिखते हुए डाक्टर सच्चिदानंद सिन्हा ने इसी अहाते के एक कुमार को ''बिहार में सामंतवाद का अंतिम स्तंभ" बताया है. इस अहाते के मुख्य द्वार (सिंहदरवाजा) की खूबसूरती की चमक आज धुंधली पड़ती जा रही है,लेकिन इसी दरवाज़े के ऊपर बने नौबतखाने में भारत-रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खान अपने अब्बू के साथ बैठा करते थे,और अब्बूजान राजा-साहब के मनोरंजन के लिए अपना पारंपरिक वाद्य-यन्त्र (शहनाई)बजाते थे।
इस अहाते के अन्दर पैदा हुए कुमार-साहबों की पूरे सूबे में एक अलग शान हुआ करती थी. खासकर यह शान अंग्रेजी-हुकूमत के दौरान काफी ज्यादा रही ,क्योंकि राजनीति के उस्ताद ये कुमार समय का सदुपयोग करना बखूबी जानते थे! हालांकि इनकी दूरदृष्टि बहुत ज्यादा मज़बूत नहीं थी ,इन्होने छल-कपट का इस्तेमाल करके अपने संतानों के लिए सोने का खजाना नहीं बनाया...लेकिन अपनी शानोशौकत और रसूख को लेकर ये किसी टुच्ची सी विचारधारा से समझौता करना नहीं जानते थे ! भाषा-साहित्य से लेकर विज्ञान तक ,अभियन्त्रिकी से लेकर कला की विभिन्न विधाओं में इन कुमारों का समय बीतता था. यह अलग बात है कि जमींदारी जाती रही...और इनके सपने धुंधले पड़ते गए ,लेकिन सपने धुंधले पड़कर भी फीके नहीं हुए! इससे पहले कि वो ठीक से समझ पाते कि सबकुछ सचमुच खत्म हो रहा है;उनकी इहलीला ही समाप्त हो गयी .जमींदारी गयी और भूमि-सुधारों के दौर का आगमन हुआ ,वह दौर भी इनकी शान का गवाह रहा. उस दौर के चश्मदीद रहे दो भाई-बहन ,क्रमशः कुमार दिव्यानंद सिंह और श्रीमती कुसुम दायजी अभी भी हमारे बीच हैं. उनसे मिलकर हम इन बातों को और भी अच्छे से समझ-बूझ सकते हैं।
मिथिलांचल में एक कहावत है -"नव घर उठे...आ ,पुरान घर खसे" ; मतलब कि यह विधाता के द्वारा निर्धारित है कि पुराने महल खंडहर बनेंगे और उनका स्थान नयी अट्टालिकाएं लेंगी ! कहावत शब्दशः चरितार्थ हुई ! जमींदारी खत्म हुई ! शासन में आम जनता की भागीदारी शुरू हुई ,समाज का माहौल बदला ! लोगों के बीच इनकी पकड़ कमजोर हुई ,इनके उन्मुक्त परों पर रस्सा लगा ....और धीरे-धीरे कालांतर में इनका दबदबा भी घटता गया ! अब वो दौर आया जब ये अपनी बेटियों की शादी किसी उच्च-कुलीन संभ्रांत श्रोत्रिय वर से ना करवाकर किसी ऐसे लड़के से करवाना चाहते थे ,जिसकी अपनी कमाई हो ,नौकरी हो !अब इनका ध्यान इस बात पर नहीं था कि घरों की खिड़कियों के शीशे मेड इन बेल्जियम हैं या नही ,बल्कि इस बात पर ज्यादा था की रही-सही जमीन पर खेती ठीक से हो और खाने-पीने लायक उपज जाय !
खैर ,सन 1900-1902 के आसपास में बनाए गए उस घर (नवरत्न/नरत्तन/नौरत्तन)के बाहरी बरामदों में पायों के बीच लगे रोशनदानों में पहनाई हुई लाल -पीली-हरी-बैगनी बेल्जियम ग्लासों की खूबसूरती आज भी अप्रतिम प्रतीत होती है ,जब सूरज की रोशनी उनसे छनकर अन्दर के पीले-मटमैले पड़ चुके दीवारों को रोशन करती है!(आपको बता दें कि कुछ रोशनदानों के शीशे फूट चुके हैं ....असल में आसपास की बस्तियों के कुछ शरारती बच्चे रंगीन शीशों से खेलने की अपनी इच्छा को चाहकर भी दबा नहीं पाए)!
1970 के दशक तक इन कुमार साहबों के बच्चे बड़े होने लगे. कुछ ,जो सचमुच मेहनती थे....नौकरी करने लगे. अब तीन प्रकार के भागों में परिवार को श्रेणीगत कर दें तो समझने में बेहतर होगा :
1)जो पढाई-लिखाई कर के नौकरी करना ,और फिर शहर की जिन्दगी जीना चाहते थे!
2)जो पढ़ना-लिखना तो चाहते थे,लेकिन अपने गाँव-परिवेश से पूरी तरह कटना नहीं चाहते थे (असल में इनकी माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी)!
3)तीसरा धड़ा यह सोचता था ,कि अभी कुछ हुआ नहीं है....सब ठीक हो जायगा!(इनके शहर में भी घर,और गाँव में भी घर थे!बाद में ये ऐसे उहापोह में फंसे कि गाँव का अच्छा खासा घर तो चमगादडों की भेंट चढ़ा ही ,सच्चाई और समय को ठीक से ना पहचानने को अब तक भोग रहे हैं !!