Saturday, September 19, 2009

श्रीनिगाह



गोलमंड़प -(गोलाकार मंडप)

नरत्तन (नवरत्न) के बाहरी मुखभाग की एक झलक



नरत्तन(नवरत्न)के बाहरी मुखभाग की एक और झलक



नरत्तन(नवरत्न): दूर से एक निगाह



पेड़ों की झुरमुटों के बीच से......








ऊपर जो महलनुमा घर आप देख रहे हैं उसे श्रीनगर के दो कुमारों,क्रमशः साहित्य-सरोज राजा कमलानंद सिंह एवं कुमार कालिकानंद सिंह ने सन 1895-1903 के आसपास ....और तत्कालीन ढर्रे के अनुरूप इसका नाम रखा--नवरत्न ! 1930 के दशक में इस घर ने दो बड़ी आपदाओं को सहा,एक तो पूरे सूबे में भयंकर भूकंप की मार पडी थी (इसमें नवरत्न का पिछ्ला हिस्सा बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया);दूसरी अगलगी, जो इस अहाते की लक्ष्मी को तार-तार कर गयी (आयुध निर्माण कारखाना और उसमें पड़े बारूद के ढेर की वजह से भवन का पूरा पिछला भाग आग का भाजन बन गया)!!



1850 के दशक में श्रीनन्द सिंह नाम का एक जमींदार-कुमार अपने सगे सम्बन्धियों के साथ एक ऐसे जगह पर आया,जहाँ साधुजनों का निवास हुआ करता था ! आज उस स्थल पर एक महलनुमा घर पूरब की ओर ताकता खड़ा है , उस घर के पायों पर रानी विक्टोरिया की मूर्तियाँ गढी हैं;मानो ये मूर्तियाँ अपनी वैश्विक खूबसूरती का प्रदर्शन कर रही हो ! भवन के मुख्य द्वार पर दोनों तरफ़ एक-एक ईसामसीह की मूर्ति,और वहीं द्वार की हृदयस्थली पर हिन्दुओं के आराध्य गणेश भी अपनी चिरपरिचित मुद्रा में विशाल उदर के साथ! मानो श्रीनगर के 'कुमारों' को आज के इस वैश्विक पटल पर फैले वैश्वीकरण की गंध 100-150 साल पहले ही लग गयी थी ! 52 बीघे में फैले इस अहाते का अपना अलग सामंती संविधान था. बिहार में सामंतवाद के बारे में लिखते हुए डाक्टर सच्चिदानंद सिन्हा ने इसी अहाते के एक कुमार को ''बिहार में सामंतवाद का अंतिम स्तंभ" बताया है. इस अहाते के मुख्य द्वार (सिंहदरवाजा) की खूबसूरती की चमक आज धुंधली पड़ती जा रही है,लेकिन इसी दरवाज़े के ऊपर बने नौबतखाने में भारत-रत्न उस्ताद बिस्मिल्ला खान अपने अब्बू के साथ बैठा करते थे,और अब्बूजान राजा-साहब के मनोरंजन के लिए अपना पारंपरिक वाद्य-यन्त्र (शहनाई)बजाते थे।
इस अहाते के अन्दर पैदा हुए कुमार-साहबों की पूरे सूबे में एक अलग शान हुआ करती थी. खासकर यह शान अंग्रेजी-हुकूमत के दौरान काफी ज्यादा रही ,क्योंकि राजनीति के उस्ताद ये कुमार समय का सदुपयोग करना बखूबी जानते थे! हालांकि इनकी दूरदृष्टि बहुत ज्यादा मज़बूत नहीं थी ,इन्होने छल-कपट का इस्तेमाल करके अपने संतानों के लिए सोने का खजाना नहीं बनाया...लेकिन अपनी शानोशौकत और रसूख को लेकर ये किसी टुच्ची सी विचारधारा से समझौता करना नहीं जानते थे ! भाषा-साहित्य से लेकर विज्ञान तक ,अभियन्त्रिकी से लेकर कला की विभिन्न विधाओं में इन कुमारों का समय बीतता था. यह अलग बात है कि जमींदारी जाती रही...और इनके सपने धुंधले पड़ते गए ,लेकिन सपने धुंधले पड़कर भी फीके नहीं हुए! इससे पहले कि वो ठीक से समझ पाते कि सबकुछ सचमुच खत्म हो रहा है;उनकी इहलीला ही समाप्त हो गयी .जमींदारी गयी और भूमि-सुधारों के दौर का आगमन हुआ ,वह दौर भी इनकी शान का गवाह रहा. उस दौर के चश्मदीद रहे दो भाई-बहन ,क्रमशः कुमार दिव्यानंद सिंह और श्रीमती कुसुम दायजी अभी भी हमारे बीच हैं. उनसे मिलकर हम इन बातों को और भी अच्छे से समझ-बूझ सकते हैं।
मिथिलांचल में एक कहावत है -"नव घर उठे...आ ,पुरान घर खसे" ; मतलब कि यह विधाता के द्वारा निर्धारित है कि पुराने महल खंडहर बनेंगे और उनका स्थान नयी अट्टालिकाएं लेंगी ! कहावत शब्दशः चरितार्थ हुई ! जमींदारी खत्म हुई ! शासन में आम जनता की भागीदारी शुरू हुई ,समाज का माहौल बदला ! लोगों के बीच इनकी पकड़ कमजोर हुई ,इनके उन्मुक्त परों पर रस्सा लगा ....और धीरे-धीरे कालांतर में इनका दबदबा भी घटता गया ! अब वो दौर आया जब ये अपनी बेटियों की शादी किसी उच्च-कुलीन संभ्रांत श्रोत्रिय वर से ना करवाकर किसी ऐसे लड़के से करवाना चाहते थे ,जिसकी अपनी कमाई हो ,नौकरी हो !अब इनका ध्यान इस बात पर नहीं था कि घरों की खिड़कियों के शीशे मेड इन बेल्जियम हैं या नही ,बल्कि इस बात पर ज्यादा था की रही-सही जमीन पर खेती ठीक से हो और खाने-पीने लायक उपज जाय !
खैर ,सन 1900-1902 के आसपास में बनाए गए उस घर (नवरत्न/नरत्तन/नौरत्तन)के बाहरी बरामदों में पायों के बीच लगे रोशनदानों में पहनाई हुई लाल -पीली-हरी-बैगनी बेल्जियम ग्लासों की खूबसूरती आज भी अप्रतिम प्रतीत होती है ,जब सूरज की रोशनी उनसे छनकर अन्दर के पीले-मटमैले पड़ चुके दीवारों को रोशन करती है!(आपको बता दें कि कुछ रोशनदानों के शीशे फूट चुके हैं ....असल में आसपास की बस्तियों के कुछ शरारती बच्चे रंगीन शीशों से खेलने की अपनी इच्छा को चाहकर भी दबा नहीं पाए)!
1970 के दशक तक इन कुमार साहबों के बच्चे बड़े होने लगे. कुछ ,जो सचमुच मेहनती थे....नौकरी करने लगे. अब तीन प्रकार के भागों में परिवार को श्रेणीगत कर दें तो समझने में बेहतर होगा :
1)जो पढाई-लिखाई कर के नौकरी करना ,और फिर शहर की जिन्दगी जीना चाहते थे!
2)जो पढ़ना-लिखना तो चाहते थे,लेकिन अपने गाँव-परिवेश से पूरी तरह कटना नहीं चाहते थे (असल में इनकी माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी)!
3)तीसरा धड़ा यह सोचता था ,कि अभी कुछ हुआ नहीं है....सब ठीक हो जायगा!(इनके शहर में भी घर,और गाँव में भी घर थे!बाद में ये ऐसे उहापोह में फंसे कि गाँव का अच्छा खासा घर तो चमगादडों की भेंट चढ़ा ही ,सच्चाई और समय को ठीक से ना पहचानने को अब तक भोग रहे हैं !!

4 comments:

  1. well done chinmaya
    I also have the same view.....
    keep it up....

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  2. हालांकि आपके लेखन में अपने परिवार की कमेंट्री ज्यादा,और किसी स्थान-विशेष की कहानी कम..... जैसी स्थिति परिलक्ष्य है,फिर भी आपका शुक्रिया! शुक्रिया इसलिए,क्योंकि आप तो हैं,जो लिखना चाहते हैं! लिखना जारी रखें .....आपके लेखनी का लक्ष्य आपको प्राप्त होगा!

    चित्रांशी,तुगलकाबाद

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  3. kya baat hai janab aise hi likhte rahe,"Likhte likhte hi aayega unhe likhne ka saur,bachhe bhale karte hon kuch kapiyan karab zarur"

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